मशीन बनाम इंसान: एक क्रूर सत्य
- Media Samvad Editor
- Sep 5, 2024
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अमानवीयता की कोई सीमा नहीं
कोरबा की बालको फैक्ट्री के गेराज एरिया में, जहाँ से कारखाने की पूरी आंतरिक लॉजिस्टिक का संचालन होता है, एक कड़वी सच्चाई छिपी हुई है। यहाँ विभिन्न प्रकार की पुरानी और जर्जर हो चुकी गाड़ियाँ जैसे ATV, MTV, LTTV, FSV, बलकर्स और टैंकर काम में लगी हैं। ये वाहन अपने पूर्णतः कार्यकाल खत्म होने के बाद भी कबाड़ी की तरह काम कर रहे हैं, लेकिन इन्हें चलाने वाले ऑपरेटरों की हालत और भी बदतर है। दिन-रात इन वाहनों को चलाने से उनकी रीढ़ और पीठ में गंभीर चोटें आई हैं। जब ये मजदूर अपनी तकलीफें उठाते हैं, तो उनके सामने सिर्फ धमकियों का जवाब होता है—शोकाज़ नोटिस, सस्पेंशन, या फिर सीधे नौकरी से निकाल दिए जाने का खतरा।
इन मजदूरों की पीड़ा को देखकर भी फैक्ट्री प्रबंधन ने आँखें बंद कर रखी हैं। नए ऑपरेटरों को ठेकेदारों के जरिए रखा जाता है, जो कम उम्र और कम वेतन के साथ आते हैं। नए खून का इस्तेमाल अब बालको के प्रबंधन के लिए सोने की खान बन चुका है। लेकिन जिस बात ने हर किसी को झकझोर कर रख दिया, वह यह थी कि मजदूरों की इस बर्बादी के पीछे खुद मजदूरों का ही हाथ है। हाँ, यह सुनकर हैरानी होगी, लेकिन प्रबंधन ने कुछ मजदूरों को अपना एजेंट बना लिया है। उन्हें हल्की ड्यूटी, अधिक वेतन, प्रमोशन, और ड्यूटी से छुटकारा देकर गुप्त रूप से अपने पक्ष में कर लिया है। ये एजेंट पिछले 2-3 सालों से कोई वाहन भी नहीं चला रहे, या फिर अपने एजेंट होने का भरपूर लाभ लेते हुए, हल्के वाहनों में अपनी ड्यूटी लगवा लेते हैं ,जबकि बाकी मजदूरों की हड्डियाँ टूट रही हैं।
हाल ही में विजेंद्र कुमार का मामला सामने आया। वह गेराज एरिया का सबसे ईमानदार और मेहनती ऑपरेटर था। उसकी बहुमुखी प्रतिभा और हर वाहन को चलाने की क्षमता ने उसे अपने साथियों के बीच खास पहचान दिलाई थी। लेकिन ATV वाहन चलाने की लगातार ड्यूटी ने उसकी रीढ़ में गंभीर चोट कर दी, जिससे वह लगभग लकवा का शिकार होने वाला था। दिल्ली में एक डॉक्टर ने उसे तुरंत वाहन चलाना बंद करने की सलाह दी, लेकिन फैक्ट्री ने उसे फिर से काम पर लौटने के लिए मजबूर किया। जब उसने फिर से गंभीर दर्द महसूस किया और काम पर नहीं जा सका, तो उसका गेट पास ब्लॉक कर दिया गया। अब वह न सिर्फ अपनी सेहत से लड़ रहा है, बल्कि अपनी जीविका से भी। सूत्रों के अनुसार कई अन्य आपरेटर भी इस पीड़ा से जूझ रहे हैं , परंतु अपने परिवार के पालन- पोषण के लिए वे इन अत्याचारों को सहने के लिए मजबूर हैं|
यह स्तिथि और भी सोचनीय हो जाती, जब यह तथ्य उजागर होता है, कि विजेंद्र कुमार, सत्ताधारी पार्टी के आदिवासी मोर्चा के मंडल अध्यक्ष हैं|
प्रबंधन की यह ‘मशीन बनाम इंसान’ की नीति ने मजदूरों की जिंदगियों को कबाड़ बना दिया है। सबसे दुखद यह है कि मजदूर खुद अपने ही खिलाफ इस्तेमाल हो रहे हैं। जब तक मजदूर इस सच्चाई को नहीं समझते और एकजुट नहीं होते, यह शोषण जारी रहेगा। कब तक वे चुप्पी साधे रहेंगे, कब तक वे अपने ही साथियों के हाथों धोखा खाते रहेंगे?
समय आ गया है कि इंसान को मशीनों से ऊपर रखा जाए। यह लड़ाई सिर्फ नौकरी की नहीं, बल्कि मानवता की है। अगर अब भी मजदूरों ने आवाज़ नहीं उठाई, तो यह मशीनें उन्हें तब तक कुचलती रहेंगी जब तक कुछ भी शेष नहीं रहेगा—सिर्फ खामोशी।
"क्या हमने इतनी बड़ी कीमत सिर्फ चुप्पी और गुलामी के लिए चुकाई है? या फिर अब समय आ गया है, जब इंसान को मशीनों से ऊपर रखा जाए?"
निष्कर्ष: यह कितनी विडंबना है कि आज जब हम आज़ादी का स्वर्णिम महोत्सव मना रहे हैं, हमें फिर से महान बिरसा मुंडा जैसे नेतृत्वकर्ताओं की आवश्यकता महसूस हो रही है। एक ऐसा नेतृत्व जो अपने लोगों के लिए, उन स्थानीय निवासियों के लिए, जिनके साथ यह अन्याय हो रहा है, पुनः संघर्ष कर सके। जिस आज़ादी के लिए उन्होंने अपनी जान दी, क्या आज उस आज़ादी का यही मोल है? क्या हमें फिर से उठ खड़ा होना होगा, जैसे बिरसा मुंडा ने अपने समय में किया था?
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